नशे के नकारात्मक प्रभाव | नीलम खीचड़
नशा नाश का रूप है, भरे जीवन में दुःख ।नाश नशे को त्याग के, भरो जीवन में सुख ।।
नशे के नकारात्मक प्रभाव: नशा शब्द नाश/पतन का उत्तरोतर रूप है, जिसका अभिप्राय विनाश की दीर्घकालीन योजना से है । जिसका परिणाम मानव का सर्वांगीण विनाश है । इसका प्रचलन प्राचीन काल में हुआ शायद तब सिर्फ शासक वर्गीय लोगों तक ही सीमित था यद्यपि तथ्य प्रमाणित करते हैं कि इस पतनाभिमुखी वस्तु का उद्भव विश्वगुरु भारतवर्ष में नहीं हुआ क्योंकि ई.पू. तीसरी शताब्दी में मौर्य सम्राज्य द्वारा यूनानी सम्राज्य पर आक्रमण करने पर यूनानीयोँ ने संधि कर अपने क्षेत्र का बचाव किया लेकिन इस पतनाभिमुखी वस्तु ( मीठी मद्य ) का भारत में प्रदापर्ण किया ।
इसी प्रभाव से भारत ने सदियों से विदेशी व्यापार में गुणकारी औषधि, मसाले और अमुक-अमुक वस्तुओं का निर्यात किया लेकिन भारत के आयात का प्रमुख मद मद्य ही रहा । विनाशकारी कार्यों के दुर्गामी परिणाम चरम विनाश ही होता है! जिसका प्रभाव आधुनिक युग में अत्यधिक उत्पादन और वितरण के रूप में दृष्टव्य है परिणाम स्वरूप अशिक्षित रेय्यत दो वक्त की रोटी की जगह खोटी मद्य को महत्व दे रहे हैं ।
प्राचीन काल में शासक वर्ग में प्रचलित होने के कारण लोग इसे संपन्नता के अर्थ में लेते है, यही वजह है कि यह तामसिक पदार्थ मेहमाननवाजी का प्रमुख तत्व बना । विदेशियों ने शक्तिशाली और सम्राज्यवादी भारतीय शासकों का सफाया करने के लिए निरंतर नशीले वर्ग की वस्तुओं (मद्य, अफीम) के बल घुटने टेकने को मजबूर किया । एक के बाद एक विदेशी आक्रमणकारियोँ ने भारतीयों को उसके प्रति लालायित किया, जिनमें अंग्रेज प्रमुख थे । सभी को यही युक्ति हाथ लगी कि बीड़ी की चिँगारी सुलग पड़ी सम्पूर्ण देश में जिसके आवेग में राजा-प्रजा इन प्रभुत्वधारी अंग्रेजो की आँच में काँच से बिखर पड़े! इसी दैत्य दानव ने भारत को सदा-सदा के लिए गुलाम बना कर रख दिया । विश्वगुरु भारत अज्ञानता के काले बादलों से आवृत रहा परन्तु वर्तमान में भौतिकी हवा के झोंकों से इसका प्रचलन दावानल की भाँति फैला है जिसमें सफेदाम से लेकर आम व्यक्ति तक कोई नहीं बच पाया ।
आधुनिक युग में सभ्य समाज में भी इस पतनाभिमुखी तथा विलायसी वस्तु का स्टेटस सिंबल के रूप में पुनः तेजतरार प्रचलन बरकरार है ।
मध्यकाल में अनेक समाज सुधारकोँ व संतजनोँ और तत्वदर्शियोँ ने अपने अन्नय प्रयत्नों से कलिकाल के भ्रमर जाल में फँसे मानव समाज को सही दिशा प्रदान की । जिनमें गुरु जाम्भोजी प्रमुख थे । गुरु जाम्भोजी ने ‘विष्णोइ विचारधारा’ (Bishnoi Samaj) का प्रतिपादन कर मानव समाज के चहुँमखी विकास का मार्ग प्रस्त किया । विचार धारा के मूल में आदर्श मानव जीवन के समावेशी तत्व समाहित कर मानव तज्य इन तामसिक तत्वों (अमल तमाखु भांग मद्य का कदापि सेवन न करना) को धर्म का आधार बना निषेध कर आदर्श समाज की स्थापना की । बिश्नोई समाज स्थापना से गत सदी तक इनकी पालना पूर्णतः होती रही लेकिन वर्तमान सभ्य समाज की दशा व दिशा विपरीत प्रतीत हो रही है ।
शिक्षित समाज को दिशा निर्देश कौन दे सकता है भला, जबकि वह स्वयं इसके नकारात्मक प्रभावों से अवगत होते हुए भी इसे अमृत के समान वरीयता दे रहा है । आज नशा चंद दिनों की जिंदगी का अभिन्न अंक बन रहा है । सेवनकृता की सदा दलील होती है इसके कितने भी नकारात्मक प्रभाव हो पर एक सकारात्मक प्रभाव तो है चिंता से पूर्णत मुक्ति, नशे में मद्योष व्यक्ति को अपनी, अपने परिवार तथा देश और अपने चरित्र-व्यक्तित्व की चिंता नहीं होती, नशे की नकारात्मकता को जीवन भर इसके सकारात्मक पहलू के रूप में गटकते मनुष्य का मस्तिष्क क्षुब्ध अवस्था में रहता है, सोचनीय शक्ति के क्षीण होने से मुढ़ मनुष्य अपने आप में नशे में रमा रहता है । इस विषपान के लिए भले उसे घर के भांडे तक बेचने पर, दो वक्त की रोटी नसीब न हो, चाहे उसे गंदगी में सोना पड़े या जिंदगी से हाथ धोना पड़े, परिजनों को जिंदगी भर ऐसी जिंदगी पर रोना पड़े पर नशेड़ी मनुष्य बिना चिंता के नशे में जीवन जीता रहता है ।
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जुग जागो जुग जाग पिरांणी, कांय जागंता सोवो ।।