तरु धरा के देव
भू-रूह से निकला है,
तरु परमार्थ काज ।
भू-रूह से जुड़ा रहे,
आजीवन तरु राज ॥
जीते-जी निर्मल रहे,
लदे प्रेम की साख ।
साख-साख की साख दे,
प्रेम नेम को राख ॥
राही को छाँव मिले,
रुक करते विश्राम ।
खग रहने को आसरा,
भू-रूह से प्रेम सिंचे,
अंबर से मेह खिँचे ।
मीठे मीठे फल लगे,
देख देख मन रीझे ॥
तरू धरा का मान है,
सिंचे ऊर पर धार ।
धरा धार तरु श्रंगार,
लगे हरी हरि हार ॥
पादप करके विषपान,
देता प्राण आधार ।
नीलकण्ड हर देव सदा,
तरु रूप हरे विकार ॥
एक तरु के खोने से,
जीवन बने दुःखदार।
एक तरु के होने से,
होता प्रेम संचार ॥
आओ मिल तरु लगायेँ,
करें जीवन साकार ।
तरु रोपण से मिलेगा,
हमें जीने का सार ॥
जीवन ज्योत जले फले,
यही तरू की रीत ।
'नीलम' भू पर देव तरु,
कर ले इनसे प्रीत ॥