लास्ट बेंचर से PhD और असिस्टेंट प्रोफेसर बनने तक का सफर: अभिषेक पूनिया
मेरा नाम अभिषेक पूनिया है। हरियाणा के हिसार जिले के गाँव लांधड़ी से ताल्लुक रखता हूँ। मेरे दादाजी का नाम श्री माखन लाल पूनिया है। आज मैं गुरु जंभेश्वर विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हूँ, लेकिन यहाँ तक का सफर आसान नहीं था। ये कहानी है एक लास्ट बेंचर की, जिसने 52% अंकों से शुरूआत की और मेहनत, परिवार के भरोसे और जुनून के दम पर PhD तक का रास्ता तय किया।
शुरुआत: 52% और एक धुंधला भविष्य
एक दिन मेरा बी.कॉम अंतिम सेमेस्टर का परिणाम आया — सिर्फ 52% अंक। उस वक्त मुझे लगा कि ये अंक मेरे लिए कोई मायने नहीं रखते। ऐसा नहीं था कि मैं परेशान था, बस सोच रहा था कि घरवाले अब पढ़ाई को लेकर कुछ तो कहेंगे। लेकिन सच कहूँ तो उस वक्त मुझे ये भी नहीं पता था कि ज़िंदगी में करना क्या है। जवाब शायद समय के पास था, और मैं इंतज़ार में था।
यूनिवर्सिटी और किताबों से दोस्ती
फिर वो दिन आया जब मैंने यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया। वहाँ प्रोफेसरों के ऑफिस में किताबों के ढेर देखे। तब जाकर समझ आया कि किताबें सिर्फ लाइब्रेरी की शोभा बढ़ाने के लिए नहीं होतीं, ये ज़िंदगी बदलने का ज़रिया भी हो सकती हैं। उस वक्त मैंने पढ़ना शुरू नहीं किया था, लेकिन मन में एक ठान लिया था — "कुछ तो करना है।"
धीरे-धीरे मेरी सोच बदलने लगी। अंकों में थोड़ा सुधार हुआ, लेकिन वो बस कामचलाऊ था। फिर भी, कुछ बड़ा बदल रहा था — मेरा नज़रिया। मुझे एहसास हुआ कि पढ़ाई सिर्फ डिग्री का टिकट नहीं, बल्कि एक शानदार और आत्मनिर्भर ज़िंदगी का रास्ता है। किताबें मेरी दोस्त बन गईं, लाइब्रेरी मेरा ठिकाना और मेहनत मेरा रास्ता।
मेहनत और खुद से लड़ाई
मेरी सफलता का सबसे बड़ा राज़ मेहनत थी — वो मेहनत जो मैंने दिल से की। जब सब कुछ धुंधला लगता था, तब मैंने अपने अंदर की आवाज़ सुनी, जो कहती थी, "एक बार कोशिश तो कर, शायद तू खुद को साबित कर दे।" मेहनत का मतलब मेरे लिए सिर्फ किताबों में सिर डालना नहीं था, बल्कि खुद से लड़ना था — अपनी आलसी आदतों से, अपनी छोटी सोच से, अपनी सीमाओं से। जब सब सो रहे होते थे, तब मैं जागकर पढ़ता था। जब मन कहता था कि थक गया हूँ, तब दिल कहता था, "अभी रुका तो वही 52% वाला लड़का रह जाएगा।"
परिवार: मेरी ताकत
दूसरी बड़ी वजह मेरा परिवार था। जब मैं खुद पर भरोसा नहीं कर पा रहा था, तब मेरे घरवालों ने मेरे लिए सपने देखे। मेरे संयुक्त परिवार ने कभी मुझ पर दबाव नहीं डाला, लेकिन उनका विश्वास मेरी सबसे बड़ी पूंजी बना। उन्होंने कभी नहीं पूछा, "तेरे नंबर इतने कम क्यों आए?" बल्कि हमेशा कहा, "अब आगे क्या करना है?" ये भरोसा मुझे हर कदम पर आगे बढ़ाता रहा।
सीखने की ललक और बदलाव
तीसरी चीज़ थी मेरे खुले विचार और सीखने की ललक। मैंने खुद को कभी बंद कमरे में कैद नहीं किया। लाइब्रेरी की किताबों से लेकर प्रोफेसरों की बातों तक, हर चीज़ से कुछ न कुछ सीखा। अपनी सोच बदली, अपनी भाषा बदली, अपना अंदाज़ बदला। मुझे समझ आ गया कि ज़िंदगी में बदलाव वही ला सकता है, जो खुद को बदलने की हिम्मत रखता है।
हार न मानने का जज़्बा
और सबसे ज़रूरी — मैंने हार मानना कभी नहीं सीखा। गिरा, रोया, टूटा भी, लेकिन रुका नहीं। हर नाकामी के बाद फिर उठा, फिर चला। एक बात हमेशा याद रखी — "रास्ते भटक सकते हैं, लेकिन जो मंज़िल के लिए चला है, वो एक न एक दिन वहाँ ज़रूर पहुँचेगा।"
खेल और ज़िंदगी का संतुलन
पढ़ाई के साथ-साथ खेल भी मेरे जीवन का हिस्सा रहा। मैंने इंटर-यूनिवर्सिटी लेवल तक क्रिकेट खेला है। आज भी मौका मिले तो बल्ला थाम लेता हूँ। खेल ने मुझे अनुशासन और टीमवर्क सिखाया, जो मेरे इस सफर में काम आया।
आज का अभिषेक
वो 52% वाला लड़का आज PhD कर चुका है। एक ऐसा इंसान, जो कभी किताबों से डरता था, आज दूसरों को किताबों से दोस्ती करना सिखा रहा है। आज मैं गुरु जंभेश्वर विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हूँ। हर दिन अपने छात्रों को यही सिखाने की कोशिश करता हूँ — "कहाँ से शुरू किया, ये मायने नहीं रखता, कहाँ पहुँचना चाहते हो, यही सबसे ज़रूरी है।"
एक उम्मीद
मैं सिर्फ एक शिक्षक नहीं, बल्कि उन सबके लिए एक उम्मीद हूँ जो सोचते हैं कि "हमसे नहीं हो पाएगा।" मेरा सफर इस बात का सबूत है कि मेहनत, परिवार का साथ और हार न मानने का जज़्बा आपको कहीं से कहीं तक ले जा सकता है।
तो ये थी मेरी कहानी — एक लास्ट बेंचर से PhD और असिस्टेंट प्रोफेसर बनने तक का सफर। उम्मीद है कि ये कहानी आपको भी कुछ करने की प्रेरणा देगी। क्योंकि मंज़िल वही पाते हैं, जो चलते रहते हैं।