जाम्भाणी परंपरा व मृत्युभोज : वेदप्रकाश गोदारा
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जाम्भाणी परंपरा व मृत्युभोज : वेदप्रकाश गोदारा |
सनातन धर्म (या कहें कि हिन्दू धर्म) में "मृत्युभोज" नामक कोई परम्परा नहीं रही है। हिन्दू शास्त्रों में शायद "मृत्युभोज" का कहीं भी जिक्र नहीं है। कुछ वर्षों पहले तक जाम्भाणी समाज में भी "मृत्युभोज" शब्द प्रयोग नहीं किया जाता था। यह शब्द नई देन ही लगता है।
जाम्भाणी परंपरा में मृतक के पीछे किये जाने वाले भोज को "ओसर/ औसर" या "खरच" कहा जाता है/ था। ओसर/ औसर, संस्कृत के "अवसर" का रूपभेद है। इसका यौगिक "ओसर-मोसर" होता है।
जाम्भाणी समाज के अस्तित्व में आने के समय जहां हमनें गुरुजी के बताए हुए नियमों को धारण किया, कुछ नई परंपराओं का निर्माण किया, वहीं हमारे मूल समाज की बहुत सी परंपराएं भी जारी रखीं। मृत्यु के पश्चात किये जाने वाला भोज, ओसर या खरच भी पुरानी परंपरा से ही चला आ रहा है। देखिए:
जाट आपरी मां रै लारै घणौ ई खरचौ-खातौ करियौ।
गंगाजळी वरताय नै सगळी न्यात निवती। नांमी मौसर करियौ।
(फुलवाड़ी)
लेकिन प्राचीन काल से चली यह परम्परा, जैसी आज है, उस रूप में नहीं रही होगी। अब लोग इसका दिखावा करके भव्य स्वरुप में करते हैं, जिसे लोग "मृत्युभोज" कहते हैं। आजकल यह प्रथा धार्मिक से अधिक सामाजिक दबाव और बाह्य आडंबर का माध्यम बन गई है।
ध्यान रहे पहले परिवार बड़े होते थे और नातेदारियाँ रिश्तेदारियां भी दूर दूर तक होते थे। आज की तरह संकुचित और सिमटे परिवार नहीं होते थे। मृत्योपरांत शोकाकुल परिवार को ढांढस दिलाने के लिए लोग दूर दूर से आते थे। वे मृतात्मा की शांति के लिए अपने रिश्ते के अनुसार किये जाने वाले कामों में सम्मिलित होते थे। प्राचीन समय में लोग किसी मृतक के परिवार के यहां स्वयं को सम्मिलित करके एवं उस दरम्यान कई सारे कामों में हाथ बटाकर उस परिवार का दुख बांटते हुए एक पुण्य का अनुभव करते थे। ऐसे में दुखित परिवार का दुख भी कम हो जाता था।
हिंदू धर्म में बच्चे के जन्म, किसी परिजन की मृत्यु, और ग्रहण के समय सूतक लगता है। सूतक काल में कई काम वर्जित होते हैं। मृत्यु-सूतक आरम्भ होने के बाद कहीं तीन दिन, नौ दिन, कहीं-कहीं दस दिन (दशगात्र), तेरह दिन (तेहरवीं) या सोलह दिन (सोलहवाँ) तक सूतक काल मनाया जाता है। सूतक काल की समाप्ति पर शुद्धि यज्ञ होता है और वह परिवार, जिसमें मृत्यु हुई है, उस समय के बाद शुभ, धार्मिक व अन्य क्रिया कलाप करने के लिए योग्य हो जाता है। उस दिन गाय, कुत्ते को चौराहे पर व कौए को छत पर भी थाली लगती है।
उस दिन जो भी बंधु बांधव उस परिवार को सांत्वना देने आते हैं, को भोजन करवाया जाता है। भोज करके यह स्वीकार कर लिया जाता है कि अब इनके परिवार की अपवित्रता समाप्त हो गई है। यह भी मान्यता है कि उस दिन के बाद मृतक की आत्मा संतुष्ट हो जाती है और परमधाम के लिए पलायन कर जाती है। उसी परिवार का अगला प्रमुख कौन बनता है, इसका निर्णय भी उस दिन किया जाता है। यह कोई दिखावा नहीं बल्कि उन लोगों के प्रति जिन्होंने इस असहनीय दुःख के घड़ी में जो ढांढस बंधाया, मानसिक सम्बल प्रदान किया, अन्य तरीकों से जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सहयोग दिया, उनको आभार प्रकट करना भी होता था।
हिन्दूओं (या कहें, सनातनियों) में मान्यता है कि मृत्यु के बाद भी अस्तित्व समाप्त नहीं होता। बस शरीर मिटता है। तब आत्मा या चित्त सूक्ष्म शरीर को धारण करती है। जिनके साथ आपने पूरा जीवन बिताया हो, उनसे मोह होना स्वभाविक है। तो आत्मा भी वहीं रुक कर शोक मनाती है और आगे की यात्रा पर निकलने के लिए तैयार नहीं होती। लेकिन जब वो देखती है कि उसके मृत्यु के बाद उसके सारे प्रियजन अब शोक से बाहर हैं, सब खा पी रहे हैं तो वो आगे की यात्रा पर निकल जाती है। इसीलिए जब कोई साधू महात्मा मरता है उसके लिए ये प्रथा नहीं अपनाते, क्यूँकि मान्यता है कि उन्हें सत्य का ज्ञान होता है और क्योंकि वे पहले ही परिवार से विरत होते हैं, अतः मृत्यु के बाद उनकी आत्मा शोक या मोह में नहीं पड़ती।
ऐसा भी माना जाता है कि वृद्धावस्था एक कठिन समय होता है तथा आयु पूरी होने के बाद जब मनुष्य वृद्धावस्था से मृत्यु की तरफ जाता है तो उसे शारीरिक पीड़ाओं से मुक्ति मिलती है। इसलिए कई स्थानों पर शव को गाजे बाजे के साथ भी विदा किया जाता है।
किन्तु असामयिक, अल्पकालीन मृत्यु शोक का कारण होती है। यह एक दुःख बांटने का समय होता है जिसमें परिवार और सगे सम्बन्धी, मित्र, परिवार आदि इकट्ठा होते हैं। लोगों के आने, मिलने, बात करने से नई मधुर स्मृतियां जन्म लेती हैं, जो बीमारी और मृत्यु से जुड़ी कड़वी यादों को दबा देती हैं और परिवार फिर से सहज हो कर अपने दायित्वों को पूरा करने में लग जाता है। इस प्रकार की मृत्यु पर सामूहिक भोज का आयोजन नहीं किया जाता।
बिश्नोई (जाम्भाणी) समाज में मृतक को मिट्टी देने के बाद जब लौट कर घर आते हैं तो इस मान्यता के साथ कि उसके प्राण या सूक्ष्म शरीर अभी घर में है, उस के निमित्त चूरमा या रोटी-दही कौवों को खिलाते हैं। इसे "कागोळ देना" कहते हैं। दूसरे दिन भी इसी प्रकार घर पर कौवों को कगोल दी जाती है।
तीसरे दिन (यह कालावधि चार या पांच दिनों की भी हो सकती है) मृतक के नाम "औसर का धान" (आजकल हलवा कहने लगे हैं) मेहमानों व बंधु बाधवों के भोज हेतु बनाया जाता है। धान में से सर्वप्रथम थोड़ा सा अंश निकाल कर अग्नि को भेंट अर्पित करने के पश्चात् उसमें दही मिला कर, जहाँ मिट्टी दी गई है वहाँ ले जाकर, उसे अन्तिम कागोल देते हैं। इसे "पूड़ी देना" कहते हैं। ऐसी मान्यता है कि कौवे के माध्यम से उस अन्न का सूक्ष्म सार-तत्व उस मृतक के प्राण ग्रहण करते हैं।
पूड़ी देने के बाद पानी का भरा हुआ एक घड़ा किसी हरे वृक्ष की जड़ में ऊनी कम्बल आदि वस्त्र पर अनाज के दाने डाल पुत्र व प्रियजनों द्वार उसमें से छानते हुए बरसाया जाता है। इसे "पाणी-ढाळ" कहते हैं। मृतक की आत्मा के प्रसन्नार्थ जल का यह अभिसिंचन मृतक प्राणी को घर परिवार के लोगों की अन्तिम विदाई है। विश्वास है कि उस समय के बाद जाम्भाणी व्यक्ति की आत्मा अपनी अगली यात्रा के लिए प्रस्थान कर जाती है।
"पाणी-ढाळ" के बाद घर लौटने तक गायणाचार्य "पाहळ" बना कर तैयार रखते हैं, और तीन-तीन घूंट परिवारजनों व प्रियजनों दिया जाता है। फिर घर-भर में छिड़क कर सारे घर का "सूतक" मिटा देते हैं। तत्पश्चात आये हुए मेहमानों व बंधु बाधवों को धान का भोजन करवाया जाता है। फिर प्रतीक स्वरूप मृतक के परिवारजनों को नये वस्त्र भेंट देकर उनका सोग समाप्त करते हैं। इसे "उढ़ावणी करना" कहा जाता है। पुरुषों को साफे वस्त्र तथा स्त्रियों को ओढ़णी उढ़ा कर सोग मिटाते हैं। इस सारी प्रक्रिया को "ओसर" या "खरच करना" कहा जाता है।
यद्यपि यह प्रक्रिया यहीं समाप्त हो जानी चाहिए, लेकिन परिवारजन प्रायः सोलह या नौ दिन शोक में बैठते हैं ताकि दूरदराज के प्रियजन जो तीसरे दिन नहीं आ पाए, वे बाद में शोक प्रकट करने आ सकें।
ऐसा लगता है पहले सूतक पातक से शुध्दिकरण के लिए यह आयोजन किया जाता था। जब दूर दराज से रिश्तेदार या प्रियजन आते थे तो उनके भोजन की व्यवस्था करनी पड़ती थी। यह परिपाटी वहां से चली होगी, लेकिन अब यह न्यौता देकर सामूहिक भोज करवाने के रूप में एक अनिवार्य आयोजन हो गया है।
हिन्दू समाज की एक विशेषता है कि समय के अनुसार इसमें बदलाव होते रहते हैं। हो सकता है कभी ये प्रथा अच्छी रही हो। लेकिन अच्छी अच्छी परंपराएं भी कालवाह्य हो जाती हैं। आज मृतक भोज एक पार्टी बन गई है, जिसमें विभिन्न प्रकार के पकवान तैयार किये जाते हैं। देखा जाता है कि मौक़ाण आये लोग परिवार जन से संवेदनात्मक बात के बजाय आपस में राजनीति की बात ही करते रहते हैं। लोग नकारात्मक टिप्पणी करते भी नहीं शर्माते।
जब से इस प्रथा में न्यान्त निंवत कर बड़े बड़े सामूहिक मृत्युभोजों का आयोजन शुरू कर बाह्याडम्बर का रूप धारण किया है, कुछ समाजों ने इस प्रकार की परंपरा को बंद करने की शुरुआत की है। जो लोग इस प्रकार के मृत्युभोज की परम्परा को बंद करने की वक़ालत करते हैं, गांवों में कई जगह उनको सामाजिक टीका टिप्पणियों का भी सामना करना पड़ता है, यद्यपि अब शहरों में कोई नहीं कहता नहीं कि आपने फलाँ परंपरा क्यों नहीं निभाई?
मेरे विचार से संचार व परिवहन की बढ़ती सुविधाओं के चलते, शोक प्रकट करने आये प्रत्येक आगंतुक को भोजन करवाने की आवश्यकता कम होती जा रही है। वैसे भी ऐसे अवसरों पर घर परिवार अथवा नजदीकी स्नेहीजनों के अतिरिक्त अधिकतर लोग इस प्रकार ओसर के धान का भोजन करने से दूरी बनाने लगे हैं।
लेकिन फिर भी क्योंकि यह बहुत व्यक्तिगत और सामाजिक जिम्मेदारी का मामला है, अतः यदि कोई इसे अपनी श्रद्धा और सामर्थ्य के अनुसार सादगी से करते हैं, तो यह चर्चा का कोई विषय नहीं है। जैसा कि आज कल न्यौता दे दे कर दिखावे के लिए चार छः प्रकार के पकवान तैयार कर अनावश्यक खर्च करने का रुझान बढ़ रहा है, वह सामाजिक दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता।