खेजड़ी वृक्ष का महत्व : मरूक्षेत्र की जीवन रेखा है खेजड़ी (शमी वृक्ष)
खेजड़ी मरुस्थलीय क्षेत्रों में बहुतायत पाया जाने वाला एक उपयोगी वृक्ष है। जिसका राजस्थान विषेकर बिश्नोई समाज मे विशेष महत्व है। यह कम वर्षा वाले क्षेत्र ईया रेगिस्तान में पाया जाने वाला मुख्य वृक्ष है। जानते हैं
मरू क्षेत्र में खेजड़ी का नाम लेते ही इसके साथ जो भी धार्मिक एवं सांस्कृतिक कथाएं स्वतः ही प्रफुल्लित हो उठती है। पश्चिमी राजस्थान में यदि किसी स्थान पर खेजड़ी के वृक्षों का बाहुल्य दिखाई दे तथा साथ में चिंकारा का समूह दिखाई दे तो यह समझ लेना चाहिए कि यह बिश्नोई बहुल क्षेत्र होगा। क्योंकि बिश्नोई समाज इन को रक्षा के लिए अपनी जान भी देने के लिए तैयार रहता है। बिश्नोई समाज इन वृक्षों की रक्षा करने के लिए विश्व भर में प्रसिद्ध है बिश्नोई साहित्य में खेजड़ी वृक्ष का विशेष उल्लेख मिलता है।
खेजड़ी वृक्ष क्या है?
यह एक कांटेदार एवं कम पत्तों युक्त मध्यम आकार का मरूक्षेत्रीय वृक्ष होता है। मरूप्रदेश में जहां अकाल सामान्यतः पड़ता रहता है वहा यह वृक्ष अपनी मजबूती एवं दृढ़ता के साथ खड़ा हुआ पाया जा सकता है। खेजड़ी वृक्ष के पत्ते झड़ने से कृषि योग्य भूमि में बहुत अच्छी और उपजाऊ खाद तैयार होती है। इसके पत्तों के झड़ जाने के कुछ समय बाद ही छोटे एवं पीले रंग के पुष्प आने लगते हैं। खेजड़ी में अप्रैल जून माह में फलिया तैयार हो जाती है। खेजड़ी की हरी फलियां भी खाई जाती है। अकाल पड़ने पर खेजड़ी की फलियां, सूखे फल, व बीज भी खाने में उपयोग होते थे। इसके बीजों की अंकुरण क्षमता 70% से भी अधिक होती है। तथा इसके बीजों को अनेक वर्षो तक संग्रहित करके रखा जा सकता है।
खेजड़ी का वृक्ष हल्की पथरीली, रेतीली एवं कम क्षारीय वाली भूमि या काली एवं चिकनी मिट्टी में भी उग सकता है। यह वृक्ष ठंड या अधिक गर्मी भी सहन कर सकता है। खेजड़ी का वृक्ष कम ऊंचाई वाले क्षेत्रों में एवं अधिक वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में भी आसानी से पनप सकता है। इसकी जड़ें 20 से 50 फुट तक गहरी भी चली जाती है इसलिए खेजड़ी कम पानी की परिस्थितियों में भी जीवित जीवित रखती है। यह वृक्ष राजस्थान, गुजरात, हरियाणा, पंजाब, मध्य प्रदेश आदि प्रांतों में बहुतायत पाया जाता है।
खेजड़ी के नाम
खेजड़ी को अलग अलग राज्यों में अनेक नामों से जाना जाता है। इसको वनस्पतिक भाषा में प्रोसोपिस सिनेरिया कहा जाता है। खेजड़ी को संस्कृत भाषा में शम्मी, हिंदी भाषा में खेजड़ा, खेजड़ी, राजस्थान में खेजड़ी, खेड़लो, गुजराती में खेजड़ी, खोजड़ों, बंगाली में शाई, छाल, सुई, बावला, पंजाब में जंडी, जंड, मराठी में शम्मी, लघु शमी, हरियाणा में षमी, मारवाड़ी में खेजड़ी, तमिल में जंबी, जोंबी, तेलगू में प्रियदर्शनी जैसे अलग अलग नामों से जाना जाता है।
प्राचीन इतिहास में खेजड़ी का महत्व
खेजड़ी का बहुत पुराना इतिहास है क्योंकि महाभारत में इसका जड़ के वृक्ष के रूप में उल्लेख मिलता है। अनेक प्राचीन शास्त्रों में तथा ज्योतिष शास्त्रों में खेजड़ी की जड़ यानी शमी की जड़ का बहुत महत्व बताया गया है। कहा जाता है कि पांडव गुप्त वेश में जहां एक वर्ष तक रहे, वहां उन्होंने अपने शस्त्रों को छुपाने के लिए खेजड़ी के वृक्ष का ही प्रयोग किया था। पुराने खेजड़ी के पेड़ के तने में अपने शस्त्रों को छुपाया था। उसके बाद उन्होंने विराट नगरी में प्रवेश किया था तथा वहाँ इस वृक्ष का पूजन किया जाता है । खेजड़ी के वृक्ष का धार्मिक दृष्टिकोण से दशहरा पर्व पर पूजन जाता है।
खेजड़ी के फूलों की पंखुड़ियां भगवान शिव एवं दुर्गा माता को भी चढ़ाई जाती है। इसके पत्तों का प्रयोग गणपति की पूजा में किया जाता है। इसके अलावा खेजड़ी की लकड़ियों का उपयोग यज्ञ में किया जाता है। शास्त्रों में कहा जाता है कि इसके वृक्ष के नीचे अग्निकुंड में बलभाचार्य जी को गुरु इलम्मा ने दर्शन दिए थे।
गुजरात के जामनगर में 100 वर्ष पूर्व अखाड़ों के समूह लग्न में माणेक स्तंभ के लिए खेजड़ी की लकड़ी लाने के लिए एक प्रकार के सामूहिक उत्सव का आयोजन किया जाता था और इस उत्तस्व को बहुत ही पवित्र माना जाता था।
बिश्नोई समाज में खेजड़ी का महत्व
बिश्नोई समाज का खेजड़ी से अटूट रिश्ता है यह समाज गुरु जम्भेश्वर भगवान के बताए हुये मार्ग पर चलते हुए पर्यावरण और जीवों को अपने जीवन व परिवार से अधिक महत्व देता है। राजस्थान के जोधपुर के पास संवत 1787 में खेजड़ली गांव में खेजड़ी के वृक्षों की रक्षा हेतु 363 बिश्नोईयों ने अमृता देवी के नेतृत्व में अपने प्राणों का त्याग कर दिया था। बिश्नोई समाज के संस्थापक व धर्मगुरु श्री जंभेश्वर भगवान ने कहा था कि ‘सिर साटे रुख सके तो भी सस्तो जाण’ अर्थात वृक्षों की रक्षा हेतु अगर सिर भी कट जाए तो भी यह सस्ता सौदा है। इसलिए बिश्नोई समाज आज भी अपने गुरुमहाराज के आदेश को सर्वोपरि मानते हुए और उनके द्वारा दिखाए गए मार्ग पर चलते हुए वन्य जीवों और पेड़ों को बचाने के लिए जी जान से लगा हुआ है।
आज भी जोधपुर, नागौर, सांचोर, जालोर, बाड़मेर, बीकानेर एवं आसपास के गांवों में तथा बिश्नोई बहुल क्षेत्रों में खेजड़ी के अनगिनत वृक्ष बहुतायत पाए जाते हैं। क्योंकि बिश्नोई समाज न तो इन वृक्षों को काटता है और ना ही किसी को काटने देता है। इसलिए इन क्षेत्रों का वातावरण भी शुद्ध है और इसके कारण यहां पर बीमारियों व संक्रमण का भी प्रकोप बहुत ही कम मात्रा में होता है। क्योंकि खेजड़ी पर्यावरण की शुद्धि के साथ साथ इसकी सांगरी बहुत ही पोष्टिक आहार है इसके सेवन से शरीर को सभी आवश्यक पोषक तत्वों की प्राप्ति होती है। इसके अलावा खेजड़ी की पत्तियां भी पशुओं के लिए बहुत अच्छा पोष्टिक आहार है। इसको पशुओं को खिलाने से पशु स्वस्थ रहते है और पौष्टिक दूध की भी प्राप्ति होती है।
उत्तराखंड के अलखनंदा वैली के पास मंडल गांव में 1973 में भी एक पर्यावरण को बचाने के लिए आंदोलन किया गया था। इस हिमालय की तलाई में सुंदरलाल बहुगुणा एवं गोरा देवी द्वारा चलाए गया चिपको आंदोलन भी इसी प्रकार के पर्यावरण के लिए लिया गया संकल्प का अनुकरण कहा जा सकता है।
राज्यवृक्ष खेजड़ी
खेजड़ी को राजस्थान का राज्य वृक्ष घोषित किया गया है। खेजड़ी की सामाजिक, आर्थिक, आध्यात्मिक एवं पर्यावरणीय उपयोगिता को ध्यान में रखकर भारत सरकार ने 1988 में इस वृक्ष पर एक डाक टिकट भी जारी किया था। खेजड़ी राजस्थान का राज्यवृक्ष होने के कारण इसे काटना या नष्ट करना कानूनी अपराध माना जाता है।
आज के युग में पर्यावरण को बचाने की आवश्यकता है इसलिए इन वृक्षों को न केवल बिश्नोई समाज परंतु प्रत्येक नागरिक को संरक्षित करना चाहिए तथा इस खेजड़ी के वृक्ष का अधिक से अधिक लाभ लिया जा सकता है क्योकि खेजड़ी में अनेक औषधीय गुण भी पाए जाते है। इसलिए इसका उपयोग करने से स्वास्थ्य लाभ भी लिया जा सकता है। खेजड़ी मरुक्षेत्र की जीवन रेखा मानी जाती है। इसलिए इसकी रक्षा करना मानव का परम धर्म होना चाहिए।
खेजड़ी के उपयोग
खेजड़ी की फलियों को उबालकर सुखाया जाता है सूख जाने के बाद इन्हें सांगरी कहा जाता है। यह सांगरी पांच सितारा होटलों में एवं राजस्थान में बनने वाली प्रोटीन युक्त सब्जी पंचकुटा का एक महत्वपूर्ण भाग है। इसकी सब्जी में रेशों की अधिक मात्रा होने के कारण यह पेट के रोगों में आयुर्वेदिक औषधि का कार्य करती है। खेजड़ी की हरी फलियों का प्रयोग भी कई प्रकार के खाद्य व्यजनों में किया जाता है खाई जाती है। इसके पके फल बीज सहित भी खाए जाते हैं जबकि इसके पुष्पों का गर्भपात में औषधि के रूप में उपयोग होते है।
फोटो साभार: थार डेजर्ट फोटोग्राफी |
खेजड़ी का आर्थिक उपयोग
यह औषधीय गुणों के साथ आर्थिक रूप से भी समर्द्ध करने में भी मददगार होती है। एक मध्यम आकार के खेजड़ी वृक्ष से 15 से 20 किलोग्राम सूखा चारा, 5 किलोग्राम तक सुखी सांगरी एवं 60 से 70 किलो तक छांगण प्राप्त किया जा सकता है। इस प्रकार खेजड़ी का पूरा वृक्ष आमदनी प्राप्त करने में उपयोगी साबित होता है। इसका अलावा खेजड़ी भूमि की उपजाऊपन में योगदान देने में भी काफी लाभदायक होती है। इसका प्रत्येक भाग किसी न किसी रूप में उपयोगी होता है।
सुखी सांगरी तोलती महिला... फोटो साभार: The Desert Photography |
खेजड़ी के औषधीय गुण
आमतौर पर लोग खेजड़ी के फायदों बारे में ज्यादा नहीं जानते हैं। लेकिन यह एक महत्वपूर्ण औषधि है। और यह औषधीय गुणों से भरपूर होती है। खेजड़ी के बहुत से विटामिन्स, प्रोटीन, मिनरल्स व खनिज तत्व पाए जाते है। खेजड़ी की छाल कड़वी, कसैली और कृमि नाशक होती है इसका बुखार, त्वचा रोग, प्रमेह, उच्च रक्तचाप, पेट के कीड़े एवं वात व पित्त के कारण होने वाले रोगों के उपचार में प्रयोग किया जाता है। खेजड़ी के कोमल पत्तों का पेस्ट बनाकर बराबर मात्रा में मिश्री मिलाकर इसका नियमित सेवन करने से एनीमिया रोग में फायदा मिलता है।
खेजड़ी का भूमि उपजाऊपन में प्रयोग
खेजड़ी के वृक्षों की जड़ों में राइजोबियम जीवाणु पाए जाते हैं जो वायुमंडल की नत्रजन को नाइट्रेट में बदलकर पौधों की वृद्धि करने में मददगार होती हैं। इसी कारण से खेजड़ी वृक्ष वाली भूमि में नाइट्रोजन अधिक मात्रा में रहती है इसलिए कृषि में इसका बहुत महत्व है। इससे फसल की उत्पादन उत्पादकता में भी वृद्धि होती है एक अनुमान के अनुसार एक हेक्टेयर क्षेत्र में इस के पौधों की जड़ों से 200 से 300 किलो नत्रजन जमीन को प्राप्त हो सकता है। इसके अलावा इसकी पत्तियों जो नत्रजन प्राप्त होता वो अलग है।
खेजड़ी की लकड़ी के उपयोग
इसकी लकड़ी भी बहुत उपयोगी और टिकाऊ होती है। खेजड़ी की परिपक्व लकड़ी का फर्नीचर, कृषि औजार एवं औजारों के हत्थे आदि को बनाने में प्रयोग होता है। क्योंकि इसकी लकड़ी कठोर एवं टिकाऊ होने के कारण यह खेती के उपकरण एवं हल, बैलगाड़ी एवं मकान बनाने बल्लियों के लिए काम में ली जा सकती है। इसकी लकड़ी एवं छांगण को जलाने एवं हवन, यज्ञ या वायुमंडल की शुद्धि आदि के लिए भी उपयोग में लाया जा सकता है। तथा इसकी लकड़ी से कोयला भी प्राप्त किया जा सकता है।