गुरु जम्भेश्वर जी का भ्रमणकाल : काबुल में जीव हत्या बंद करवाना
एक समय जाम्भोजी मके मदीन लवेयान की पाल्य उपरे खड़ा रह्या। एक झींवर जाल ले आयो। जाम्भोजी झींवर ने कह्यो- जल में जाल मत रेड़। झींवर जल मां जाल रेडय़ो। एक मछी आइ। जांभजी नफर न कहे। दवा सुणाई। मछी अमर हुई, झींवर कनी यों मछी काजी लिवी। काजी करद चलाव। मछी कट नहीं। तीन्य दिन आतस मां उकलाई। मछी क आंच लागी नहीं। काजी झींवर पकडि़ मंगायो। क्यों व कुटण यो मछी कहां ते लायौ। काजी हकीकत कही, काजी मछी ले पीर क पास्य आया। काजी कह तुम कुण मरद हो। जांभोजी कह यौह माही कहगी मछी कह- विसमलाह हरे रहमान रहीम.....
हे वील्ह! श्री जम्बेश्वर जी ने केवल सम्भराथल पर ही शब्दोपदेश दिया हो ऐसी बात नहीं है। यत्र तत्र भ्रमण करके भूले भटके जीवों को सुपात्र जान कर उन्हे सचेत किया। एक समय श्री देवजी मका- मदीना गये थे। वहां पर लवेयान तालाब की पाल खड़े थे। उसी समय ही एक झींवर मच्छी पकडऩे वाला आया। और जल में जाल डालने लगा जाम्भोजी ने झींवर से कहा- तूं जल में जाल मत डाल किन्तु झींवर ने देवजी की बात सुन कर भी अनसुनी कर दी और जल में जाल डाल दिया।जाल में एक मच्छी फंस गयी, जांभोजी ने उस मच्छी को अमर होने का वरदान प्रदान किया जिससे वह अमर हो गयी। उस झींवर को क्या पता वह तो रोज की भांति उस मच्छी को जल से निकाल कर ले गया। बाजार में जाकर उस मच्छी को काजी के हाथ बेच दी। काजी ने उसे काटने के लिए करद चलाया किन्तु वह तो बज्र देह वाली हो गयी थी कटने में आयी नहीं। तब काजी ने उसे तीन दिन तक अग्नि में पकाई किन्तु वह ज्यों के त्यों बनी रही आंच लगी भी नहीं थी। काजी ने उस झींवर को पकड़ के बुलाया और पूछा-रे कुटण! यह मच्छी तूं कहां से लाया? काजी के सामने जो हकीकत थी वह उस झींवर ने बतलाई। काजी उस मच्छली को लेकर श्री देवजी के पास में आया। काजी कहने लगा- तुम कौन मरद हो? जाम्भोजी ने कहा- मैं कौन हूं, यह मैं नहीं कहूंगा, मेरा परिचय तो यह मच्छी ही दे रही है। अधिक क्या बतलाउं। इस घटना से अब तक मेरा परिचय तुम्हें नहीं मिला तो अब अधिक कहने से भी कोई फायदा नहीं है। ऐसा कहते हुए शब्द बनाया।यह शब्द अरबी-फारसी भाषा में है उस काजी को सुनाया था। यह शब्द काजी ने किताब में लिख लिया था। जाम्भोजी का स्वागत किया, और सदा सदा के लिए मच्छली न मारने का प्रण किया।नाथोजी कहते है हे वील्ह! यह पारसी का शब्द होने से हमारे लोगों के समझ में नहीं आया। इसीलिए कण्ठस्थ भी नहीं हो सका था। काजी की किताब में लिखा हुआ था उसी रूप में तुम पढ सकते हो। शब्द इस प्रकार से है-
विसमलाह हरे रहमाने रहीम, रोजे ही वाय। सेख जहान मा वामक मदीनै वा जिवाय जिकर करद अद। नसबुद याय रबी। दसत पोसीद वव पे सेख। अवरदह। या पीर दसतगीर। अजमादर। उपदर पदास्य नेस। दह सूरा कदरव ओजू दमर धाम। नैमें वासद न मे करद अद। सेख पुरजीद की कुदरती। एमन माही सोगंद खुदाय तालाह हक बागोयौ। माही दरसे खान वागुकद: अबलि गुसल करद अद: वाजे अजली वाज: । इदवा सुखानंद मनवा जहां जरि: दवा दप गोस तासीर आतस कुदरती नमै करद अद। हर के सेख क एक। समुरी दइ दवा अति रोज बुखानंद: अगर हरे रोज: पुरसद मैने वासद: एक राज पीरान मुरीदान: खुद बुखानंद खवा अबरत वा मुरद वाउ आकोन अजावर कबे: सुद हाम दोजकी मन वासद परहेज बुद विसमलाह हिर रहमाने रहीम खरे खुलायक उआ अफजल अलाह सरि। अवल्य नासरे सइदान महमंद अलाहु सलम। बाजे कुल सलाम: अलाह सालहीज अलाह मोमदीन: उसलेह अलाह अबीयपां।
काजी किताब मां लिख्य लीवी। पीर की कदम पोसी कीवी। जीव तणां छोड्या। उस समय का यह शब्द सुनाया हुआ नाथोजी ने वील्होजी को सुनाया। मृत मच्छली को जाम्भोजी के कहने से काजी ने वापिस जल में डाल दी। मच्छली जल में तैरने लगी। जिसकी सांई स्वयं रक्षा करे उसे मारने वाला कौन हो सकता है।
श्री देवजी ने मके- मदीने में प्रहलाद पंथी जीवों को सचेत कर के वहां से चल कर काबुल गए। वहां पर सुखनखां रहता था। उसको दर्शन दिया, एक पहाड़ी पर आसन लगाया। वहां पर पांच काबली चले आये है और पास में बैठ कर पूछने लगे- कि आप हिन्दू हो या मुसलमान? श्री देवजी ने कहा- न तो मैं हिन्दू हूं और नहीं मुसलमान। आप लोग क्या चाहते है। यह जीवात्मा न तो हिन्दू है और नहीं मुसलमान। आप लोग क्या चाहते है। यह जीवात्मा न तो हिन्दू और नहीं मुसलमान। दोनों पन्थो से उपर है। काबली कहने लगे- यदि आपको भोजन करने की इच्छा हो तो आपके लिये भोजन ले आये। श्री देवजी ने कहा- मेरी चिंता न करो, आप लोग सुखनखां के पास जाओ और उनसे कहना कि हक की कमाई करो, हक का ही खाओ। वे पांचो सुखनखां के पास गए और पीरजी की बात कह सुनाई- सुखनखां उन पांचो के साथ भोजन लेकर श्री देवजी के पास आया और कपड़े से ढकी हुई थाल आगे रखते हुए इस प्रकार से कहने लगा- हे पीरजी! यह आपके लिए भोजन, इससे पेट भरो, ऐसा कहते हुए सुखनखां परिक्रमा करते हुए श्री देवजी के सामने बैठ गया। श्री जाम्भोजी ने कहा- मुझे भोजन की आवश्यकता नहीं है क्योंकि मुझे भूख प्यास लगती नहीं है। भूख प्यास तो उसे ही सताती है जिनका शरीर पांच तत्वों से बना हुआ है। यह भोजन तुम वापिस अपने ही घर ले जाओ और एकान्त में बैठ कर खा लेना। सुखन खां कुछ कहने लगा- तभी उसकी थाली में तीतर का मांस था वही भोजन लेकर आया था वे तीतर तो थाली में से जीवत होकर उड़ गये। इस प्रकार से पीर में शक्ति देखी और सुखन खां चरणों में गिर पड़ा प्रार्थना करने लगा- हे पीरजी! मुझे क्षमा कर दो मैं अब तक अज्ञान अंधकार में सोया हुआ था। अब मेरी आंखे खुल गयी। मेरे गुन्हे बकस दो। अपने जन को संसार सागर से पार उतार दो। श्री देवजी ने उन्नतीस नियम बतलाते हुए कहा- फिर कभी जीव हत्या नहीं करना। नियमो का पालन करना। तूं प्रहलाद पंथी जीव है। यह मैं जानता हूं इसीलिए मैं मुम्हारे पास आया हूं, तुम्हें जगाया है, फिर सो मत जाना है। नाथोजी कहते है- हे वील्ह! इस प्रकार से एक सौ पचपन गांव सुखनखां के नाम से थे। वे सभी जीव हत्या छोड़ कर विश्नोई पंथ के पथिक बने। इस प्रकार से जहां तहां भी बिछुडे हुए जीव थे उनको वापिस सद्पंथ के पथिक बनाया। श्री जाम्भोजी भ्रमण करते हुए काबुल से मुलतान चले आये वहां सूचका पहाड़ पर आसन लगा कर बैठे थे। तेरह खान और बारह काजी दर्शनार्थ आये। जो आये थे उनका पाप ताप मिट गया था। उन्होनें देखा था कि कोई फकीर पहाड़ पर बैठा ध्यान लगा रहा है। एक काजी कपड़े में हड्डी को लपेट कर के श्री देवजी के पास ले आया था। वह शक्ति- सिद्धि देखना चाहता था। काजी ने वह कपड़े में लपेटी हुई हड्डी दिखाते हुए कहा कि हे पीर जी! इस कपड़े में लपेटा हुआ क्या है आप सत्य बतलाइए? जाम्बेश्वरजी ने हंस करके कहा- इसमें तो सोना है, काजी ने तुरंत कपड़ा हटाया और देखा कि उसमें तो सचमुच सोना ही हो गया। लपेटी तो हड्डी थी किन्तु यह तो सोना बन गई। काजी आश्चर्य चकित होकर सोने की लकड़ी देख रहा था। श्री देवजी ने उन पच्चीस जनों की पहिचान की और उन्हें उपदेश देते हुए कहा- हे प्रहलाद पंथ के बिछुड़े हुए जीवो! आगे से कभी जीव हत्या नहीं करना। यह तुम्हारा कार्य नहीं है। यह सोना अपने घर ले जाओ। और हक की कमाई करो। उन्नतीस नियमों का पालन करते हुए सतपंथ के अनुयायी बनकर वापिस अपने गुरू प्रहलाद से जा मिलोगे। हे वील्ह! इस प्रकार से यह बिश्नोई पंथ चला था और आगे अनेक प्रकार से विस्तार को प्राप्त हुआ था। उन सभी ने पृथक पृथक प्रणाम किया और सदा सदा के लिए अहिंसक होकर अपने जीवन को व्यतीत किया। वहां पर मुलतान में श्री देवजी सूचका पहाड़ पर विराजमान थे, उस समय उनके पास में सरफअली और हसन अली दोनों आये और कहने लगे- यदि आप स्वयं खुदाताला ईश्वर है तो कुछ ईश्वरीय चरित्र दिखाना होगा। हम लोग तभी मानेंगे अन्यथा हम पाखण्ड को नहीं मानते है। आप हमें चार बात का प्रचा दीजिए कि जमीन में गढा हुआ धन कहां है, यह बतलाइए? दूसरा प्रचा यह दीजिए कि मृतक पशु को पुन: जीवित कर दीजिए। तीसरा प्रचा यह दीजिए कि हम आपके शरीर पर चोट मारेंगे तो भी आपके शरीर में घाव न हो पाये। चौथा प्रचा यह होना चाहिए कि आप खाना पीना न करें। यदि ये चार प्रचे पूर्ण हो जाये तो आप ईश्वरीय अवतार है अन्यथा आप कोई साधारण फकीर ही है। जम्बेश्वरजी कहने लगे- आप लोग इस पहाड़ी के उत्तर की तरफ उस पीपल को देख रहे हो, उसके नीचे चार टोकणा जमीन में दबे हुए। ये चारो बरतन अनहरद ने रखे थे। सरफ अली पूर्व जन्म में अनहारद ही था उन टोकणों पर नाम लिखा हुआ है। हे सरफअली! पूर्व जन्म का तुम्हारा ही गाढा हुआ धन वह तेरा ही है उसे ले ले। तुम्हें इस धन की वजह से पूर्व जन्म की याद हो आयेगी। अनेको जन्मों में भटका हुआ मनुष्य वापिस अपने स्थान में धर्म में कभी न कभी तो आही जायेगा। हे हसन अली! तुम्हारी कोख में यह हींग का थैला है, इसे तुम धरती पर रखो और फिर ईश्वरीय करामात देखो। हसन अली ने श्री देवजी के कथनानुसार ज्योंहि थैला नीचे रखा त्योंहि उस थैले में से एक मृग निकल कर वन में छलांग लगाता हुआ भाग गया। हे हसन! तुम्हारे हाथ में तलवार है इसी से ही मेरे शरीर पर मार कर देखो। आज्ञा सुन कर हसन अली ने शरीर पर तलवार चलाई किन्तु कहीं भी शरीर में स्पर्श नहीं कर सकी। हवा में खाली ही निकल गयी। जिसके शरीर में तीक्ष्ण तलवार का घाव नहीं लग सका तो वह शरीर तो दिव्य ही होगा। इन पांच महाभूतों से तो शरीर की उत्पति नहीं होगी। तब खाना पीना भी किस लिये होगा। पांच तत्वों द्वारा निर्मित शरीर की रक्षा हेतु खाना पीना आवश्यक है। इस प्रकार से चारों प्रचे पूर्ण हुऐ। अतिशीघ्र ही काजी और खान श्री देवजी के परचित हुऐ उसी समय श्री देवजी ने उनको शब्द सुनाते हुए उपदेश दिया- शब्द '' ओउम्! सुणरे काजी सुणरे मुला''
दोहा''
सरफ हसन प्रचाविया, गुरू छुड़ाई देव।
सतगुरू शब्द सुनावियो, तिसी समय को भेव।
हज काबै का हज करां, काबुल सुखनखान।
सेफन अली हसन अली, इह प्रचे मुलतान।
इनकू प्रचा देय के, आये संभ्रस्याम।
जो बाड़े के जीव थे, तिन्हीं तिन्हीं सूं काम।