बिश्नोई समाज में अंतिम संस्कार विधि | Bishnoi Community ki History

 बिश्नोई समाज में अंतिम संस्कार विधि | Bishnoi Community ki History

बिश्नोई समाज में अंतिम संस्कार विधि


गुरु जम्भेश्वर ने सभी संस्कारों के बड़े ही सरल तरीके से लागू करवाया। बिश्नोई पंथ अनेक पंथो से अलग संस्कार हैं। हिन्दुओं में बारह दिन का पातक (सोग) रहता हैं परन्तु बिश्नोई पंथ में तीन दिन का सूतक रहता हैं। जम्भेश्वर भगवान ने सरल  तरीके जीवन को जीने का मार्ग बताया हैं कि मनुष्य को अच्छे कर्म करते हुए विष्णु का स्मरण करना चाहिए। गुरु जम्भेश्वर भगवान ने मुख्य लक्ष्ण मोक्ष प्राप्ति का बताया हैं तथा इस संसार को गोवलवाश कहा हैं कि जन्म मरण साश्वत सत्य हैं।


 अंतिम स्नान : सांस के अंतिम छोर पर मनुष्य को पलंग या खाट से नीचे उतार कर धरती पर सुलाया जाता हैं इसी समय कुंची वाला शब्द सुनाया जाता हैं। जब सांस का चलना रुक जाता हैं , ह्रदय की धड़कन बंद हो जाती हैं नाड़ी का चलना बंद हो जाता हैं उस समय मृतक देह को छने पानी में गंगाजल मिलाकर अंतिम स्नान करवाया जाता हैं ।

 कफ़न (खापण) देना : स्नान करवाने के बाद सूती वस्त्र का कफ़न देह पर ओढ़ाया जाता हैं। इस कफ़न के कपड़े का कोई मूल्य नहीं होता हैं तथा कफ़न के कपड़े की एक कोने से कोर पकड़ ली जाती हैं। पुरुष को सफ़ेद , सुहागिन स्त्री या कुँवारी को लाल रंग और विधवा को काले रंग की कोर की ओढ़नी , साधु संतों को भगवे वस्त्र का कफ़न उढ़ाया जाता हैं।

 तृण शैया : बाजरी , ज्वार या अन्य घास के तिनकों से तृण शैया तैयार की जाती हैं मृतक देह को उसके पुत्र तथा भाई बन्धु हाथ व कंधा पर ले जाते हैं। “घोर” से पहले मृतक देह को स्थान पर विश्राम कराया जाता हैं। सभी नंगे पैर चलते हुए मृतक देह को श्मशान स्थल पर ले जाते हैं ।

दफ़न देना (दाग देना) : मिट्टी दिन में ही दी जा सकती है रात्रि में नहीं दी जा सकती हैं। परिजन मृतक देह के लिए उचित स्थान पर घोर तैयार करवाते हैं। शहरों में श्मशान भूमि जो अलग होती हैं वहां पर गाड़ते हैं। घर सात फुट गहरा, दो या तीन फुट चौड़ा खड्डा खोदा जाता हैं इसे ही घर खोदना कहा जाता हैं। देह को घोर में उत्तर दिशा की ओर सिर रखकर सुला देते हैं तथा मृतक का पुत्र कफ़न मुंह से हटाकर कहता हैं कि यह आपका घर हैं फिर कफ़न से वापस मुंह ढक देता हैं। 

मृतक देह के शरीर पर कफ़न के अतिरिक्त कोई आभूषण या वस्त्र नहीं रखा जाता हैं फिर हाथों से मिट्टी डाल- डाल कर उस घर को भर देते हैं। गढ्ढा भर जाने के बाद उस पर पानी डालकर उस पर बाजरी बरसाते हैं तथा जिस जिस में देह को कंधा दिया हो वे सभी इसके ऊपर स्नान करते हैं बाकि लोग पास स्नान करते हैं कपड़े धोते हैं व अन्य कपड़े पहनते हैं ।

कागोल देना : मृतक के परिजन उसकी देह को भूमि में गाड़ने के पश्चात, जब घर लौटकर आते हैं तो इस विश्वास के साथ कि उसके प्राण अभी घर में उनके साथ मौजूद हैं, उसे चूरमा या रोटी–दही, मृतक के प्रिय भोजन की कागोल, कौवों को खिलाते हैं, इसे कागोल देना कहते हैं। मृतक के नाम दुसरें दिन भी इसी प्रकार घर पर कौवों को कागोल दी जाती हैं| तीसरे दिन मृतक के नाम जो मिष्टान मेहमानों को खिलाने हेतु बनाया जाता हैं जिसे औसर का धान कहा जाता हैं, में से सर्वप्रथम थोड़ा सा अंश निकाल कर, उसके नाम अग्नि को भेंट चढाने के पश्चात उसमें दही मिलाकर कागोल देते हैं उसे अंतिम कागोल कहते हैं।

ऐसा लोगों का विश्वास हैं कि कौवे तो केवल माध्यम हैं जो अन्न के स्थूल भाग को खाते हैं उस अन्न का सूक्ष्म का सार तत्त्व उस मृतक प्राणी ग्रहण करते हैं। कागोल देने के बाद एक पानी का भरा हुआ घड़ा, किसी खेजड़ी या हरे वृक्ष की जड़ में, ऊनी वस्त्र पर अनाज के दाने डाल, उसमें से छानते हुए, बरसाया जाता हैं पुत्र, प्रियजन उस समय उसे जलांजलि देते हैं। बस यही उस मृतक प्राणी से घर परिवार के लोगों की अंतिम विदाई हैं विश्वास हैं कि उस समय के बाद अपने जीवन में बिश्नोई पंथ पर चलने वाला जीव सीधा स्वर्ग धाम को चला जाता हैं।कागोल एवं जलांजलि देने के पश्चात परिजन घर लौट जाते हैं।

उसी समय संत गायणाचार्य पाहल बनाकर तैयार रखता हैं, उस अभिमंत्रित जल को, लोगों को तीन-तीन घूंट पिलाया जाता हैं। पाहल को घर भर में इधर–उधर छिड़क कर सारे घर का सूतक मिटा देते हैं। उस अवसर पर पाहल बनाने एवं देने की विधि परम्परानुसार अपनाई जाती हैं जिसमें संत गायणाचार्य द्वारा होम, अग्निहोम, कलश स्थपाना, पाहल मन्त्र पढ़कर पाहल करना, शब्दवाणी के शब्दों का सस्वर पाठ करना, भजन, साखी, आरती गाना तथा अंत में पाहल लेने के बाद, प्रसाद स्वरूप मिष्टान का भोजन करना। इस भांति तीसरे दिन, विधिवत सोग की बैठक व सूतक समाप्त हो जाता हैं। प्राय: सारे सगे संबन्धी भी तीसरे दिन ही मिलने आते हैं।

पाहल लेकर भोजन करने के पश्चात, सूतक समाप्ति के प्रतीक स्वरूप, मृतक के परिवार जनों को नये वस्त्र भेंट देकर उनका सोग समाप्त करते हैं। इस वस्त्र भेंट को ओढ़ावणी (उढ़ावणी) करना कहा जाता हैं। पुरूषों को साफे, पगड़ी, वस्त्र या स्त्रियों को ओढ़नी उढ़ा कर सोग मिटाते हैं। फिर नाई के द्वारा मृतक के परिजनों का मुंडन किया जाता हैं जिसे खिज्मत खूंटी कहा जाता हैं। बस यही निर्वाण संबन्धी अन्तिम संस्कार हैं।


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