गुरु जम्भेश्वर भगवान के चरण चिन्ह, लोहावट साथरी
मूलचंद ने उक्त सरोवर पर विराजमान श्री गुरु जम्भेश्वर जी को देखा इनकी तेज पुंज युक्त विशाल मनोहर शरीर आकृति को देखकर मूलचंद ने महाराजा मालदेव से जोधपुर जाकर कहा कि राजन्! एक श्री गुरु जम्भेश्वर जी नामी अवधूत का मुझे फलोधी परगने के जंगल में दर्शन हुआ जो कि एक सरोवर के तट पर समासीन हुए सरोवर खुदवा रहे थे- ऐसी तपोबलधारी अप्रतिम सौन्दर्य मूर्ति का दर्शन मैनें आज तक नहीं किया- मैं समझता हूं कि साक्षात् श्री महादेवजी ने ही अवतार धारण किया है उनके दर्शन करने मात्र से ही मनुष्य का चित संसारी विषयवासना से विमुक्त होकर परमार्थ की ओर झटिति ही प्रवृत हो जाता है।
ऐसा केाई विरला ही मनुष्य निकलेगा कि जो उनके चिताकर्षणिक त्वरितप्रभावशाली सत्योपदेश को सुनकर के परमार्थ मार्ग में प्रवृत होकर दया धर्म होम यज्ञ सदाचार आदि सत्कर्मों का एक पात्र न बन जाता हो ऐसे दर्शनीय सिद्धेश्वर सदुपदेशक महानुभाव के दर्शन करने के लिए मैं आप से भी अनुरोध करता हूं.
दीवान राजा मालदेव ने श्री जम्भेश्वरजी के दर्शन करने की इच्छा से जोधपुर से प्रस्थान किया अब राजा तो जोधपुर से श्री जम्भसरोवर की तरफ को चला और सिद्धेश्वर स्वयं वहां से चल दिये और दोनों का मिलाप लोहावट के जंगल में हो गया।
मालदेव ने आचार्य को हाथी से उतर कर प्रणाम किया और आचार्य ने विष्णवेनमः प्रत्यभिवाद देकर राजा को अपने सन्निकट सादर खेजड़ी वृक्ष के नीचे बैठाया और अनेक दृष्टान्त दाष्र्टान्त से नीति और धर्म का उपदेश किया। राजा इनके उपदेश और दर्शन से आचार्य को साक्षात् ईश्वर का अवतार मानते हुए और इनके बताये हुए पारमार्थिक धर्मों को विश्वासपूर्वक धारण करते हुए राजा ने इनसे पूछा कि भगवन्! ईश्वर के कितने नाम है। इस पर आचार्य ने राजा के प्रति कहा कि हे राजन्! परब्रह्म निरंजनदेव के असंख्य नाम हैं परंतु लोकप्रसिद्ध तो सहस्त्र नाम ही हैं तथा कृष्णदैपायन ने भी सहस्त्र ही लिखे हैं परंतु परमात्मा के सहस्त्र ही नाम जानता है वह महान मूढ़ पुरूष है ऐसा जानना चाहिये फिर आचार्य ने यहां एक शब्द कहा (सहस्त्र नाम) इतयादि फिर मालदेव नरेश ने अपने प्रधान से कहा कि जहां पर श्री गुरु महाराज सुशोभित हैं और मैनें आकर दर्शन किये हैं इस भूमि को मैैं अधिक पावन जानता हूं अतएव इस जगह एक छोटासा स्थान स्मारकचिन्ह की भांति बना देना चाहिये राजमंत्री ने स्वीकासर किया और राजा प्रणाम कर असीम आमोद को प्राप्त कर जोधपुर को गया। इति।
मालदेव नरेश की प्रेरणा से जो स्मारिक चिन्ह रूप स्थान बना था कुछ वर्षों के पश्चात जब टूट फूट कर खराब हो गया। इस दशा में सम्वत् 1850 के लगभग परमपूज्यपाद यतिवर्य श्रीमहन्त गंगारामजी महाराज जो कि इस मत के महोपदेशक एवं परम प्रतामी महात्मा हो गये हैं उन्होनें इस पूज्य स्थान की रक्षा की ओर ध्यान दिया और अपने श्री गुमानीरामजी नामी शिष्य को इसके सुधारने की आज्ञा दी। पुनः श्री महात्मा गुमानीरामजी ने इस स्थान का जीर्णोद्धार किया और उन्होनें वहां पर एक जलकुण्ड भी निर्माण किया इनके देहान्त होने के पश्चात इनके शिष्य महात्मा श्री वृन्दावनजी और महात्मा श्री बालकदासजी इस स्थान के अध्यक्ष बने और इस स्थान का प्रसिद्ध नाम लोहावट की साथरी यह हुआ।