विष्णोइ : बिश्नोई
संवत् पँदरा सै बंयाळै, मरुधर काळ त्रिकाळ ।
चोपाया लोग लुगायां, अंजळ बिन बुरा हाल ॥1॥
अंजळ बिन बुरा हाल, काळ रूप विकराळ ।
मरु बासी जाबा लागा, मेवात काळ टाळ ॥2॥
जांगळ जांभजी भेँटिया, कीनी बात बिमरस ।
मरू छोड़ जावंता नै, बंधायो मन थावस ॥3॥
जांभजी अलौक शक्ति सूं, दीन्होँ अन्न अथाह ।
मरता जीव बचाविया, मे-ह ने-ह बरसाह ॥4॥
समराथल हरि आविया, आवि सगळी जमात ।
जांगळ धणी जाम्भजी, भाख्यी परम बात ॥5॥
मरु रा पांथा बदळसी, प्रे-म ने-म संचार ।
जांगळ जज्ञ जाम्भजी, थरप कळस दातार ॥6॥
पावन पथ परचावियो, पहलादे वाचा श्याम ।
पाहळ पाणी देवियो, जोय विष्णोइ नाम ॥7॥
बाविस अरु सात नेम, विष्णोइ पंथ आधार ।
इणि नेमा नेम राखो, ए-ह जीवन सार ॥8॥
विसन् रसाळो रूँखड़ो, निपजै इमरत फळ ।
रसाणा रसाळा भाख्या, आवागवण नी भळ ॥9॥
जीव दया हिरदे धरो, धरो प्रे-म रो ने-म ।
शमी मिरघे हित सदा, राखो जीवन ने-म ॥10॥
बाद-विवाद क्रोध लोभ, त्यागो मन अभिमान ।
जीयां जुगति मुवा मुक्ति, हालो गुरु फरमान ॥11॥
प्रे-म ने-म परचावियो, जगत जाम्भजी राय ।
प्रेम ने-म सिर धारियो, विष्णोइ जन समुदाय ॥12॥
सोवण गांव गुणावंती, साल्हिया हुया दोय ।
विष्णोइ पथ चालतां, मरतां मोख होय ॥13॥
प्रे-म ने-म ने राखता, आवि विपदा हेक ।
करमा गौरा देह हित, बचाया व्रख अनेक ॥14॥
क्रमा गौरा रो गौरव, व्रखां सूं घणो ने-ह ।
कल्प बिरछ रे होवंता, होवण लागो मे-ह ॥15॥
खीँ-व-णी मो-टा ने-तू, रूँखा रलि निर्वाण ।
जाँभेजी जिभिया जपतां, परम पद प्रमाण ॥16॥
सतरा सै सवंता बरिष, चैत तीज तिथि जाण ।
खेजड़ियां रे हित खड्यो, बूचो भगत महान ॥17॥
व्रख प्रीत पंथ यूँ पळी, देह देय व्रख राख ।
मरू मांही विष्णोइ जन मरू तरु री साख ॥18॥
दोय सदी पछे आरण, हुयो रूँखा री त्राण ।
आत्मदळ व्रखां दुःख सह्यो, जाम्भेजी री आण ॥19॥
अमरता बाई जावतां, धारियो आरण्य रूप ।
बिरछ प्रेम दरसावियो, जग अमरता अनूप ॥20॥
बन रा जीव जिनावर, इणा सूं घणो ने-ह ।
विष्णोइ जीव बचावतां तज दे आपण देह ॥21॥
चूनो चिमन गंग निहाल भीँयो अर्जन शैतान ।
बीरबल हजारी गंगो, मिरघे तणो तन दान ॥22॥
अरब देसां सूं आयो, खेलण शिकार सेख ।
जैसाणे धरा विष्णोइयां, राख्यो गोडावण देख ॥23॥
रामा सारद परमेसरी, जसोदा जेड़ी माय ।
कृष्णसार एह पाळियो, आपण दूध पिलाय ॥24॥
गाय अरु बेल राखता, खड्या सात अरु बीस ।
चिन्दड़ धरा विष्णोइयां, ध्यावे आपण ईश ॥25॥
जोरे जेड़ो जोध जय, हुयो न होसी ओर ।
सुन्दे खां जुल्म भूल्यो, करतब कीन्होँ जोर ॥26॥
मरू तरु जीव जिनावर, गाय सूं घणी प्रीत ।
विष्णोइ जन पावन पंथी, निभावे विरली रीत ॥27॥
विष्णोइ जन विष्णु सेवक, प्रगति रा बनमाळी ।
रातां जगमग चानणो, तारा री रूखाळी ॥28॥
केवे किसनो चित लाय, प्रे-म ने-म सुख होय ।
जग प्रे-म ने-म पसारे, विष्णोइ धरम जोय॥29॥
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