आखिरी संदेश : गुमानाराम खीचड़
स्व. गुमानाराम खीचड़ |
गत दिनों से निरंतर अपने लोगों की आवाजाही के बीच उस दिन मुझे कुछ अलग ही प्रतीत हो रहा था, वट जो जीवन की पूर्णता को प्राप्त होने को था शांत अवस्था में रसना के रस को तज सिर्फ कुछ ग्रहण कर रहा था अपने लिए! आखिरी ज्ञान, गीता का गुढ़ ज्ञान; शब्दवाणी का सार । शायद थी जल्दी उन्हें प्राप्त करने की या बची थी गिनी-चुनी साँसे । रोम-रोम में हरि का हरजस रम रहा था पर किसी का ध्यान वट की आखिरी कांति पर न गया । हरि के ध्यान में मग्न वटात्मा जीवन का आखिरी ज्ञान, केवल्य ज्ञान सहजता से सहजती प्रतीत हो रही थी । हरि से हृदय में धड़कने का आखिरी अनुरोध में प्रेमवत सहयोग व समर्पण का भाव भान हो रहा था मानो धर्म का कर्म कि ओर प्रवृत होने का दौर आखिरी छोर को था । साँसोँ की आखिरी गर्माहट की तेज योगी के जप(ब्रह्मतत्व की प्राप्ति) से उत्पन्न तप सी कमरे में सर्वत्र फैल पड़ी । अचानक लाइट चली गयी, नहीं-नहीं वट परम तत्व में समा गया । हृदय की वेदना को दबाए किसी को भान हुआ उससे पहले मैं कमरे से बाहर आया पीछे से आवाज आई 'बेटरी लाओ रे' शायद उन्हें भी दीये की बाती के मुरझाने का ज्ञान हो गया ।
पर उन्हें कौन समझाए कि इस बेटरी से क्या होगा, उसी कमरे में विद्यमान दीये की लो शांत हो चुकी है जिसके प्रेम प्रकाश में हम नन्हे बाल-ग्वाल अभी जीवन जीने कला सीख रहे थे । बाहर गायेँ रंभाति सुनाई दे रही थी । प्रकृति की यह कैसी रचना है हम जैसे लोग निरीह जीवों के प्रेम को समझ नहीं पाते और गायेँ थी जिन्हें अपने स्वामी की आत्मा के परमात्मा से मिलने का भान हो गया । अपने प्रिय के वियोग में विलख रही थी । जैसे तैसे अपने को संभाला और अंदर से बेटरी लेकर आया, बेटरी के साथ ही लाइट का आगमन पर पुनः न लौट सका तो वह था दीये की बाती से प्रकाश! लौटे भी तो कैसे आत्मा का मिलन परमात्मा से जो हो गया अर्थात् जो प्रकाश एक निश्चित क्षेत्र तक जीवन शक्ति का संचार करता था अब वह आभामंडल में सर्वत्र फैल गया । पास बैठे जनक ने अपने तात के हृदय पर हल्के से हाथ रखा लगा रुक चुके हृदय के स्पंदन को गति देना चाहते हैं कुछ पल यूँ ही निस्प्राण से स्थिर रहे जैसे तात से बात में मगसुल थे । कमरे में शांति पसर गई । थोड़ी देर बाद पास बैठे लोगों में से धीमी सी आवाज आई 'के भाई इमीलाल' विरह से विलखते हिँवड़े को संभाल यूँ बैठे जैसे कुछ घटित ही नहीं हुआ । लालसुर्ख आँखो से अश्रुधारा बहने को तड़फ रही थी पर बह न पाई, हृदय पिता के निश्छल प्रेम भीग गया । निस्प्राण पड़ी देह को देखते रहे जबतक की मन न भरा, भरे भी तो कैसे नन्ही-नन्ही अंगुलियाँ को थाम लड़खड़ाते पैरों को जीवन की राह दिखाई; जीवन भर प्रेम प्रकाश से सुपथ दिखाते रहे और आज अचानक यूँ बाती का मुरझाना !
मुरझाता वट आखिरी वक्त आखिरी संदेश दे गया जब तक देह में प्राण है सेवाभाव से कर्मशील रहो । यही जीवन की सार्थकता है । सेवाभाव के साथ कर्मशीलता अर्थात् अपने जैसा पराए होते अपनों को बनाने की आखिरी इच्छा । यह जगतोन्मुखी कार्यों के निष्पादन का प्रेरक संदेश निरंतर कर्मशीलता व सेवाभाव की सहजता लिए प्रेम प्रकाश से हम सभी को सुपथ दिखाता रहेगा ।
#एक_पन्ना_काळजे_की_कोर_से_पितामह_के_आखिरी_संदेश_का
7 जनवरी, 2015
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