गौ-वंश मानव के अस्तित्व रक्षण, पोषण, विकास और संवर्धन में सहायक है । इसलिए वैदिक काल में हमारे ऋषि-मुनियों ने गौ को माता की संज्ञा दी । गोबर में लक्ष्मी व गौमूत्र में गंगा का वास माना गया है । गौ के दुग्ध से मनुष्य को विशिष्ट शक्ति, बल मिलता है व सात्विक बुद्धि का निर्माण होता है । कुरआन व बाईबल में भी गौ महिमा का उल्लेख है ।
गौ-वंश प्रजापति (विष्णु) को अत्यधिक प्रिय है । द्वापर में श्री कृष्ण ने गौ-माता से प्रेम का अनूठा संदेश दिया । धार्मिक अनुष्ठानों (यज्ञादि) में गौ के उपले व घी के प्रयोग का महत्व शास्त्रों में बताया गया है ।
गऊ घृत लवे छाण, होम नित हो करो ।
(वील्हा जी कृत बत्तीस आखड़ी)
आयुर्वेद में गौ-रस (दूध, दही, घी, गोबर, गौमूत्र) का औषधिक महत्व है । सनातन संस्कृति में गौ-वंश का धार्मिक व सामाजिक दृष्टि से अधिक मान है । वेदों में धनवान व्यक्ति के लिए गोमत् का प्रयोग हुआ है जो गौ यानी गाय का प्रतीक है । भारत वर्ष में वत्स द्वादशी और दीपावाली को गौ पूजा की जाती है । प्राचीन पारसी ग्रंथ 'अवेस्ता' में गाय को अक्सर अग्न्या(अवध्य) कहा गया है।
धार्मिक ग्रंथों में गौ -वंश की महिमा का बखान सर्वत्र मिलता है, साथ ही मानव जीवन सहयोगी, परोपकारी, निरपराधी एवं अवध्य गौ माता के वध को ऐसा पाप बताया गया है जिसका कोई प्रायश्चित नहीं है । गौ सेवा व गौचर सदैव भारतीय जीवन शैली व अर्थव्यवस्था के आधार बिंदु रहे है ।
सद्गुरु जाम्भोजी, बिश्नोई और गौ रक्षा
गुरु जाम्भोजी ने मध्य सदी में मरु मध्य संवत् 1542 में 29 नियम संहिता का प्रतिपादन किया, इन नियमों के अनुसरणकर्ता बिश्नोई कहलाए । गुरु जाम्भोजी ने मानव विकास के साथ मानव विकास में सहायक पर्यावरण का अक्षुण्ण संरक्षण व जीवों के कल्याण का भाव को संहिता में समाहार अपने अनुयायियों के हृदय में प्रकृति के घटकों से प्रेम का बीज अंकुरित किया । गुरु जाम्भोजी ने "जीव दया पालणी" नियम प्रतिपादित कर मानव समाज में प्रकृति व मानव मध्य प्रेम संप्रेषण प्रद्वीप्त किया ।
गुरु जाम्भोजी ने तत्कालीन क्रूर व जीव-जन्तु भक्षी पाखण्डी मुसलमानों को अपनी अलौकिक शक्ति व द्वियोपदेशक( शब्द वाणी ) से चेताया। जिसके विभिन्न उदाहरण जम्भ - वाणी दर्शन में मिलते है । जाम्भोजी ने तत्क्षेत्रीय पहलुओं पर विस्तृत चिंतन कर जीव दया पालणी अवधारणा का प्रतिपादन किया जो अनेक कारणों से मरु में मनुष्य जीवन अस्तित्व बचाए रखने में ही नहीं अपितु उसके जीवन संवृद्धन में सहायक है ।
गुरु जाम्भोजी की अवधारणा का द्वितीय पहलू "अमर रखावै थाट व बैल बधिया न करावेँ" है । अमर रखावै थाट उक्त नियम उस समय बिश्नोई बने लोग जो पहले भेड़-बकरी का पालन करते थे उन्हें भेड़-बकरी पालन को छोड़ मेढोँ और बकरोँं को बेचने से रोक, उनकी थाट रखने कहा । बिश्नोई बनाना ही अहिंसात्मक प्रवृत्ति का अनुसरण है । अतः जिस कार्य से प्रत्यक्ष/परोक्ष रूप से जीव हत्या हो वह कार्य कदापि नहीं करना चाहिए इसलिए गुरु जाम्भोजी ने बिश्नोई विचारधारा को ग्रहण कर बिश्नोई बने लोगों को गऊ पालन का संदेश दिया ।
जम्भवाणी में गाय अत्यंत पवित्र व सर्व कामनाओं की पूर्ति करने वाली बताया गया है । यथा : अमावस्या कामधेनु सदृश सर्व इच्छाओं की पूर्ति करने वाली है, अमावस्या के रहते हुए जिस कार्य से जीव हत्या हो उसे कदापि नहीं करना चाहिए (शब्द -7) । बिश्नोई समाज में गौ-वंश रक्षा/पालन प्रत्येक परिवार में आज भी उसी भावना से करते हैं जितनी कि धर्म स्थापना के समय ।
शब्दवाणी में गुरु जाम्भोजी ने नव-प्रसुता गाय के दूध पिते बछड़े को अलग करने को अनुचित बताया है । ऐसे अनुचित कार्य को करने से मनुष्य को असहनीय सांसारिक दुःख भोगने पड़ते है ।
"कैतैँ सूवा गाय का बच्छा बिछोड़्या, कैतैँ चरती पिवती गऊ बिडारी ।"
( गुरु जम्भेश्वर शब्दवाणी, शब्द 61 )
निज प्रसुवा गाय, चूंगती देखिये । मुखां बताइये नाही और दिस पेखिए ॥
(वील्हा जी कृत बत्तीस आखड़ी)
इन शाश्वत सत्य सूक्तियोँ का अर्थ क्षेत्र व्यापक है जिसमें धार्मिक महत्व के साथ गौ स्वास्थ्य की महत्ता परिलक्षित होती है । यही कारण है कि बिश्नोई जन गौ-वंश स्वास्थ्य का उतना ही ख्याल रखते है जितना की अपना ! पशु (जच्चा व बच्चा ) के स्वास्थ्य वृद्धि हेतु उसे 'सुवाड़' देते हैं । जिसकी अवधि एक माह की होती है । इस अध्यावधि को 'देयी' के नाम से जाना जाता है । इस अवधि में नव-प्रसुता को पोष्टिक पोषण ( गुड़, खल, बाजरी ) व बछड़े को माँ का पोष्टिक दूध पोषण दिया जाता है । इस अवधि के बाद अपने आराध्य देव को दूध अर्पण(भोग) कर पश्चात गृह कार्य में दूध उपयोग में लेते है । यह बलाहार द्वारा प्रतिपादित पशु स्वास्थ्य की दृष्टि से यह महत्वपूर्ण कार्य है ।
बिश्नोई संस्कृति, रिवाज में गौ-माता का यथेष्ट महत्व है । तभी तो बिश्नोई समाज में नव-विवाहित पुत्री के यहां पिता के घर से एक नव-प्रसुता गाय भेजी जाती है ( विशेषतः मारवाड़ क्षेत्र में ) जिसे 'दायजा' कहा जाता है । यह रीति दहेज प्रथा का विपरीत पहलू है जो सामाजिक संस्कार के रूप में दृष्टिमान हो रही है । यहां कहना उचित होगा कि सनातन परंपरा का गौरव पूँज (गौ वंश रक्षा) के अक्षुण्ण संरक्षण में यह रिवाज महत्वपूर्ण आधार प्रतीत हो रही है ।
चिन्दड़ (हरियाणा) में गौ रक्षार्थ 27 बिश्नोई शहीद हुए
जाम्भोजी के प्रति सजल श्रद्धा व 'जीव दया पालणी' का प्रभाव इतना व्यापक था कि सन् १८५७ संवत् 1914 कि वैशाख महीने चिन्दड़ (हरियाणा) में गौ रक्षार्थ बिश्नोई जन समूह(२७ बिश्नोई शहीद हुए) ने प्राणोत्सर्ग किया । जो बिश्नोई लोगों की गौ के प्रति जो बिश्नोई लोगों की गौ के प्रति प्रेम मनोवृत्ति का एक परिपूर्ण उदाहरण ही नहीं अपितु विश्व में जीवों से प्रेम का बेजोड़ आधार प्रस्तुत करता है । गुरु जाम्भोजी द्वारा प्रतिपादित यह प्रेरक परंपरा मानव समाज को गौ रक्षा को बढ़ावा देने व सनातन संस्कृति के अक्षुण्ण संरक्षण में महत्वपूर्ण है ।
- जंभवाणी
- बिश्नोई पंथ और साहित्य, लेखक : डॉ. बनवारी लाल सहू
- अमावस्या व्रत कथा, कृष्णानंद आचार्य
लेखक के बारे में