गुरु जाम्भोजी और आर्थिक विकास
आर्थिक विकास का शाब्दिक अर्थ मानव का विकास है । मानव के विकास से अभिप्राय सामान्यता मानव के कल्याण, स्वास्थ्य, भौतिक पर्यावरण व आर्थिक और सामाजिक स्वतंत्रता से लिया जाता है जिसमें मानव के जीवन में गुणात्मक सुधार हो और राष्ट्रीय कल्याण में वृद्धि हो ।
आर्थिक विकास मूलतः तथा प्राथमिक रूप से देश के लोगों से संबंधित होता है । देश के लोग ही राष्ट्रों की वास्तविक सम्पत्ति है । ( Development is primarily and fundamentally about people. People are the real wealth of nations. ) - HDR 2010 "आर्थिक विकास से अभिप्राय परिमाणात्मक तथा गुणात्मक परिवर्तन ( राष्ट्रीय उत्पाद तथा साथ ही जीवन की गुणवत्ता में सुधार जो राष्ट्रीय कल्याण में वृद्धि से संबंधित है) मानव विकास रिपोर्ट 2011 के अनुसार आर्थिक विकास मुख्यतया मानव विकास तथा लोगों के 'वरण के विस्तार' (Enlargement of people's choices) से संबंधित वस्तुओं और सेवाओं की उपलब्धता में विस्तार से संबंधित है ।
आर्थिक विकास की अवधारणा व्यापक है जो अपने आर्थिक संवृद्धि (Economic Growth), सामाजिक क्षेत्रक विकास (Social Sector Development) तथा समावेशी विकास (Inclusive Growth) को सम्मिलित किए हुए है । 1 आर्थिक संवृद्धि उत्पादन वृद्धि से संबंधित है । सामाजिक क्षेत्रक विकास मुख्यतया कमजोर वर्ग के विकास से संबंधित है तथा समावेशी विकास विकास का विवरणात्मक पहलू है।
गुरु जाम्भोजी, मरु प्रदेश की आर्थिक परिस्थितियाँ और आर्थिक विकास
मध्य सदी में मरु प्रदेश में आर्थिक स्थिति सामान्य नहीं थी । सामन्ती लोगों द्वारा अत्याचार व भौगोलिक विषमताओं से उत्पन्न संकटो की मार ! ऐसी स्थिति में जन-मन का धन पर प्रभुत्व न रहा । इन विषम परिस्थितियों में जन-मन के उद्धारक के रूप में उभर कर आए गुरु जांभोजी, जिनके साथ ही आर्थिक उनयन का दौर शुरु हुआ । गुरु जाम्भोजी ने धर्म की शाश्वत परिभाषा देते हुए कहा कि
"धर्म पुरुष सिरजीवैँ पूरू"
अर्थात् धर्म वही है जो मानव के चहुँमुखी विकास के पथ पर अग्रसर होने में सहायक हो जो आर्थिक विकास की अवधारणा का प्रतिष्ठामूलक रूप है ।
संवत् 1542 में भौगोलिक परिस्थिति जन्य संकट के प्रभाव से त्रसित लोग पश्वादि लेकर अन्यत्र पलायन करने को विवश थे ऐसी स्थिति में गुरु जांम्भोजी ने त्रस्त लोगों की आर्थिक सहायता की व मरु की इन चिर स्थायी समस्याओं से निजात पाने की अवधारणा का प्रतिपादन " विष्णोइ विचारधारा" के रूप में किया ।
गुरु जाम्भोजी महाराज ने "विष्णोइ विचारधारा" (Bishnoi Samaj) अवधारणा प्रतिपादित करते समय मरु की भौगोलिक व सामाजिक परिस्थितियों को दृष्टिगत रखते हुए मानव विकास के साथ मानव विकास में सहायक चरोँ के विकास को ध्यान में रखा । जाम्भोजी की अवधारणा सर्वग्राही रूपेण, मानव क्या चाहता हैं पर आधारित न होकर उनकी आवश्यकताओं पर आधारित है । जिसके परिष्कृत रूप में विश्व विकास की भावना परिलक्षित है । ध्यातव्य है कि गुरु जाम्भोजी द्वारा प्रतिपादित अवधारणा का मूल 29 नियम संहिता व उनके द्वियोपदेश है। जिनके मूल में गुरु जाम्भोजी ने
"जीया नै जुगती"
अर्थात् जीवन यापन की युक्ति बताई । जो तत्क्षेत्रीय अशिक्षित रेय्यत में आत्मबोध का आधार बनी ।
जीया नै जुगती संदेश में मानव के अस्तित्व रक्षण से लेकर स्वास्थ्य, भौगोलिक पर्यावरण व आर्थिक और सामाजिक स्वतंत्रता को एक माला में पिरो कर जन-मन में उसे धर्म का आधार बना विकसित किया । मध्यकालीन आर्थिक उन्नयन की इस सुधारवादी अवधारणा का विकसित रूप हमें सद्गुरु जाम्भोजी के परम संदेशोँ में दिखता है । उन्होंने ने सामाजिक सुख शांति और विकास के लिए पर्यावरण की विशेष महत्ता बतलाई । प्रकृति जन्य उत्पादों को विकसित कर आर्थिक संवृद्धि में वृद्धि पर बल दिया ।
गुरु जाम्भोजी की अवधारणा का अत्यधिक महत्व व मान सामाजिक क्षेत्रक विकास में दृष्टिमान हुआ जिसमें गरीबी निवारण का स्पष्ट सार तत्व निहित है । साथ ही आय व सम्पत्ति के विवरण विषमता के निवारण का भी उचित प्रबंध किया है । यथा : गुरु जाम्भोजी ने परिश्रम करके उपार्जित अपनी हक की कमाई (हक हलालूं) प्रयोग लेने को बार-बार चेताया साथ ही उपार्जित आय का दशम् भाग जरूरत मंदो में देने का भी उपबंध किया । गुरु जाम्भोजी ने कर्मवाद को मानव की श्रेष्ठता बताया है, बिना कर्म के परिवार को बिना दानो की भूसी और बिना रस के गन्ने के समान निरर्थक माना है, कर्म ही विकास का प्रथम अव्यव है । तत्कालीन परिस्थितियों में अशिक्षित रेय्यत को आत्मबोध से जागृत किया ।
मानव स्वास्थ्य के प्रति गुरु जाम्भोजी का चिंतन व्यापक था। वस्तुत मानव स्वास्थ्य के प्रति उनका शाश्वत मत था कि स्वस्थ मनुष्य दीर्घायु तक सक्रिय रहकर परिवार, समाज और देश के उच्च विकास में सहयोगी होता है अतः उन्होंने इस अवधारणा में ऐसे तत्व व परंपराओं का समावेश किया जो न केवल मानव हितकर है अपितु प्रकृति के घटकों के पोषण से परिपूर्ण है । जाम्भोजी ने तत्क्षेत्रीय प्राकृतिक प्रकोप का निराकरण सुदीर्घ सुसंगत व अर्थपूर्ण योजना से इन बहूआयामी मरुस्थलीय खतरों के बावजूद मानव को प्रकृति से जोड़ निष्पादन किया जिसका परिष्कृत रूप वर्तमान में विष्णोइ बहुल क्षेत्र में दृष्टव्य है॥
सारांशत: हम कह सकते हैं मरु भूमि जहां आर्थिक विकास के मूल अवरोधक तत्व मौजूद हैं जहां मानव जीवन के अस्तित्व के प्रतिकूल भौगोलिक अवस्था थी ऐसे में वहां के लोगों को प्रकृति जन्य आपात स्थिति में पश्वादि ले अन्यत्र पलायन को विवश होना पड़ता था । वहां गुरु जाम्भोजी ने विकास की ऐसी अवधारणा का प्रतिपादन किया जिसमें प्राकृतिक व भौगोलिक आपदाओं के निराकरण के आधार तत्व समाहित किए । जिसका न केवल सामाजिक महत्व है बल्कि विज्ञान-अन्वेषण की दृष्टि से परिपूर्ण व अपने-आप में श्रेष्ठता लिए प्रतिष्ठामूलक अवधारणा है ॥
संदर्भ :
- भारतीय अर्थव्यवस्था सर्वेक्षण तथा विश्लेषण प्रो. लाल एण्ड लाल
- शब्दवाणी प्रकाशक: स्वामी सदानन्द